ApnaCg@कभी उपहास के पात्र राहुल अब सर्वाधिक स्वीकार्य, अपरिहार्य और प्रासंगिक – Dr Deepak Pachpore
संपादकीय
नेहरू परिवार जहां एक ओर भारत के करोड़ों लोगों के दिलों के बेहद करीब है, तो वहीं कुछ लोगों के अपमान का हमेशा से केन्द्र रहा है। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भारत विभाजन का दोषी बतलाने के अलावा उन्हें अमीर घराने से होने के कारण अनवरत अपमानित किया गया। नेहरू के बाद इंदिरा गांधी को ‘गूंगी गुड़िया’ कहा गया तो वंशवाद का उन पर भी आरोप लगा। राजीव गांधी के लिये भी विपक्ष हमेशा कटु रहा। वर्तमान पीढ़ी सोनिया-राहुल- प्रियंका, उनसे जुड़े रॉबर्ट वाड्रा भी उसी अपमान का शिकार हो रही है। फिर भी, इधर कुछ बदलाव नज़र आया है। जैसे-जैसे राहुल गांधी की पद यात्रा सफलता के साथ आगे बढ़ रही है, उनकी छवि तेजी से बदल रही है। सम्भवतः पहली बार विपक्ष, खासकर गांधी परिवार एवं कांग्रेस का प्रमुख विरोधी दल भारतीय जनता पार्टी उन्हें गम्भीरता से ले रहा है।
याद करें, इंदिरा गांधी की अचानक हुई मौत ने उनके बड़े पुत्र राजीव को प्रधानमंत्री बनाया गया था। वैसे पहले ही वे कांग्रस के राष्ट्रीय महासचिव बना दिये गये थे। तब से लेकर उनकी मौत के तीन दशकों बाद तक यानी अब भी उन्हें आरोपित किया जाता है। राजनीति में उतरते ही उन पर वंश परम्परा के कारण पद मिलने का लांछन लगा, तो पीएम होने के दौरान कहा जाता था कि उन्हें भारत का ज्ञान नहीं है। उन पर बोफोर्स में रिश्वतखोरी का आरोप भी लगा। तत्पश्चात सोनिया का नंबर आया। राजीव के निधन के कुछ साल बाद सोनिया ने कांग्रेस का नेतृत्व सम्भाला। 1991 (राजीव की मृत्य का वर्ष) से लेकर अब तक उन पर संगठित तरीके से हमले जारी हैं। कभी उन्हें बोफोर्स के भ्रष्टाचार में कथित रूप से लिप्त राजीव की पत्नी होने के कारण बदनाम किया गया, तो अक्सर उनके विदेशी मूल के होने पर लांछित किया गया। भाजपा का काम तब और आसान हो गया जब कांग्रेस के 3-4 बड़े नेताओं ने इसी मुद्दे पर कांग्रेस तोड़ दी। शरद पवार, पीए सेंगमा, तारीक अनवर, प्रफुल्ल पटेल आदि ने अलग होकर राष्ट्रवादी कांग्रस बनाई। सतत अपमान और तिरस्कार झेलकर भी सोनिया ने कांग्रेस और यूपीए का नेतृत्व कर 2004 में न सिर्फ केन्द्र की भाजपा प्रणीत अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार को अपदस्थ किया। न स्वयं प्रधानमंत्री बनीं न राहुल को बनाया, बल्कि डॉ. मनमोहन सिंह जैसे विख्यात अर्थशास्त्री को इस पद पर बिठाकर देश की अर्थव्यवस्था को नयी ऊंचाइयां प्रदान कीं। राजीव के बचे काम इस सरकार के दो कार्यकाल (2009 सहित) में तो किये ही गये, सूचना व शिक्षा का अधिकार, महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा), लोकपाल जैसे जनहित के महत्वपूर्ण कार्यक्रम भी लागू हुए। हालांकि इससे भाजपा का जहरीला प्रचार नहीं ठहरा। जिनकी विद्वता का लोहा पूरी दुनिया ने माना, ऐसे अर्थवेत्ता के लिये ‘मौनी बाबा’, ‘रिमोट संचालित’, ‘परिवार का नौकर’ जैसे अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया गया। संसद के भीतर मनमोहन सिंह को “रेनकोट पहनकर नहाते हुए देखने” का तंज कसते हुए संसदीय व सार्वजनिक मर्यादा की सीमाएं लांघी गयीं।
राहुल को सारे पुरखों का सम्मिलित अपमान प्रारम्भ से ही झेलना पड़ा है। राहुल गांधी 2004 में उसी समय से विपक्ष और खासकर भारतीय जनता पार्टी के निशाने पर आ गये थे, जब वे राजनीति में आये-आये ही थे और अमेठी से लोकसभा सदस्य बने थे। पार्टी की युवा विंग को सक्रिय करने, ग्रामीणों के साथ पार्टी को जोड़ने, दल में आंतरिक लोकतंत्र को मजबूती देने तथा 2009 का लोकसभा चुनाव का चुनाव कांग्रेस को जिताने का श्रेय उन्हें जाता है, परन्तु 2014 व 2019 की हार का उन्हें जिम्मेदार बतलाया गया। उनके नेतृत्व में हुए कई राज्यों के चुनावों में मिली पराजयों का ठीकरा भी उनके सिर पर फोड़ा गया। भाजपा को पता है कि उनके राह की सबसे बड़ी रूकावट गांधी परिवार ही है, सो सभी सदस्यों पर और खासकर राहुल पर इसलिये मुख्य निशाना रहा क्योंकि पिछले करीब दो दशकों के अपमान भरे व्यवहार का दबाव उन्होंने सफलतापूर्वक सहा है। अब भी यह परिवार मोदी एवं भाजपा की रातों की नींद ऐसी हराम किये रहता है कि पूरा पार्टी-तंत्र अपने दुष्प्रचारों से गांधी परिवार का अपमान कर उसकी छवि को लगातार गिराने में रत रहता है ताकि वह सत्ता तक कभी न पहुंचे। मोदी इसके लिये लाल किले की प्राचीर का भी इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करते।
जब तक गोदी मीडिया का प्रभाव नहीं था, परिवार के खिलाफ यह दुष्प्रचार मर्यादित व मुद्दा आधारित था और ऐसा गंदा तो कतई नहीं था। प्रचार माध्यमों पर नियंत्रण, सोशल मीडिया में ट्रोल आर्मी व आईटी सेल का गठन और देश को ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ बनाने की भाजपा नेतृत्व की मुहिम ने हमारे राजनीतिक विमर्श में विपक्षियों के लिये ‘जर्सी गाय’, ‘कांग्रेस की विधवा’, ‘महारानी’, ‘युवराज की मां’, ‘शाहजादा’, ‘पप्पू’ जैसे शब्द दिये। इसका नेतृत्व खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लगभग तभी से कर दिया था, जब उनके नाम पर इस पद के लिये भाजपा हाईकमान ने मुहर लगाई थी। आक्रामक और जाबांज राजनीतिज्ञ दिखने के फेर में मोदी ने कालांतर में भाजपा के काडर और एकत्र राशि का जमकर इस्तेमाल विपक्षी नेताओं के खिलाफ किया। एक सुनियोजित व संगठित प्रचार के जरिये राहुल एवं उनके परिवार के सदस्यों के खिलाफ खूब गंदगी फैलाई गई। सोशल मीडिया के माध्यम से आईटी सेल- निर्मित सामग्री जमकर बिखेरी गई। मोदी का कद वास्तविकता से बड़ा करने के उद्देश्य से इस परिवार को बदनाम करने हेतु ऐतिहासिक तथ्यों के साथ तोड़-मरोड़, गलतबयानी सब कुछ बहुत बड़े पैमाने पर किया जाता है। सभाओं के अलावा फेसबुक, वाट्सएप, ट्वीटर, यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्मों पर पिछले 8-9 वर्षों में जो विष उगला गया, उसके निशाने पर परिवार के पूर्ववर्ती शासक (नेहरू, इंदिरा व राजीव) और सदस्य तो रहे ही, वर्तमान पीढ़ी इस योजना के तहत खासे लपेटे में आई ताकि उन्हें सत्ता से दूर रखा जाये। जिस प्रकार से विरोधियों में किसी को केन्द्रीय जांच एजेंसियों के जरिये डराकर तो किसी को लालच देकर या निर्वाचित राज्य सरकारों को असंवैधानिक तरीकों से गिराकर भाजपा ने उन्हें अपने खेमे में किया। वैसी ही उम्मीद भाजपा ने इस परिवार से लगाकर रखी थी। ऐसा न होने पर भाजपा अपने दुष्प्रचार के स्तर को सतत गिराती चली गयी। एक-एक कर सारे मोदी-भाजपा विरोधी नतमस्तक हो गये या समर्थक बन गये हैं, केवल नेहरू परिवार न डरा, न झुका। नेशनल हेराल्ड का भय भी उन पर बेअसर रहा। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में सीमित शक्ति के बाद भी प्रियंका गांधी ने भाजपा से जमकर लोहा लिया। थोपी गयी नोटबंदी, जीएसटी, कोरोना का कुप्रबंधन, जीडीपी, गिनती के पूंजीपतियों को देश की सम्पत्ति देने, महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी, किसानों पर अत्याचार, महिलाओं पर होने वाले अपराधों आदि के मुद्दों पर इस परिवार के तीनों ही सदस्य मुखर रहे।
देश में बढ़ती नफरत के खिलाफ राहुल गांधी की कन्याकुमारी से कश्मीर तक की 3570 किलोमीटर की निर्धारित ‘भारत जोड़ो यात्रा’ अभी बामुश्किल 300 किमी भी तय नहीं कर पाई है, लेकिन उन्हें मिल रहे अप्रत्याशित जन समर्थन व लोकप्रियता से भाजपा स्तब्ध है। अक्टूबर में निर्धारित कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिये राहुल पर चुनाव लड़ने का जोर है, जिसे वे नकार चुके हैं। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सांसद शशि थरूर के बीच मुकाबला सम्भव होता दिख रहा था पर दोनों की स्वीकार्यता राहुल जैसी नहीं है। इस यात्रा से राहुल उस कद और वजन को पा लेंगे कि सामान्य कार्यकर्ता को राहुल के अलावा और किसी का भी नेतृत्व स्वीकार्य नहीं होगा। वे नहीं चाहेंगे कि राहुल की मेहनत बेकार जाये। आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि राहुल पर कांग्रेस अध्यक्ष बनने का दबाव बढ़ेगा और हाईकमान को अपना फैसला बदलना पड़े। गहलोत द्वारा खड़े किये गये विवाद से तो सम्भवतः अब कांग्रेस के लिये गांधी परिवार के अतिरिक्त किसी का भी नेतृत्व शायद ही मंजूर हो, विशेषकर, इस सूरत में जब राहुल उपहास के पात्र न रहकर कांग्रेस के लिये स्वीकार्य व अपरिहार्य तथा समग्र राजनीति के लिये सर्वाधिक प्रासंगिक बन चुके हैं।